The doctrine of the living constitution : जीवंत संविधान का सिद्धांत

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September 27, 2024

The doctrine of the living constitution : जीवंत संविधान का सिद्धांत

Why in News ?  CJI  has  recently said that the understanding of the Constitution as a living document aids constitutional courts in understanding new, novel problems.

It facilitates the Court in finding a jurisprudential basis for solutions to existing social problems.

About the doctrine of the living constitution :

  • It refers to the interpretation of the Constitution as a dynamic and evolving document that adapts to changing societal norms, values, and conditions.
  • In India, this doctrine plays a crucial role in constitutional interpretation and has been reinforced by various Supreme Court judgments. Here are key aspects, articles, and case laws related to this doctrine:

Articles Related to the Doctrine:

Article 13: Prohibits laws that are inconsistent with fundamental rights, ensuring that the Constitution remains relevant.

Article 21: Guarantees the right to life and personal liberty, which has been expansively interpreted by the judiciary to include various rights not explicitly mentioned in the Constitution.

Article 32: Allows individuals to approach the Supreme Court for the enforcement of fundamental rights, enabling a living interpretation of these rights.

Key Case Laws:

Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973):

This landmark case established the “basic structure doctrine,” asserting that while Parliament can amend the Constitution, it cannot alter its basic structure. This decision underlines the dynamic nature of the Constitution, which evolves through judicial interpretation.

Maneka Gandhi v. Union of India (1978):

  • The Supreme Court expanded the interpretation of Article 21, stating that the right to life and personal liberty includes the right to live with human dignity. This case exemplifies how the Constitution adapts to contemporary values and human rights.

Vishaka v. State of Rajasthan (1997):

  • The Court laid down guidelines for preventing sexual harassment at the workplace, interpreting existing laws in light of fundamental rights. This case demonstrated the Court’s role in addressing contemporary social issues through a living constitutional approach.

Navtej Singh Johar v. Union of India (2018):

The Supreme Court decriminalized consensual homosexual acts, recognizing the rights of the LGBTQ+ community. This judgment reflects the evolving nature of constitutional interpretation concerning individual rights and societal norms.

Shayara Bano v. Union of India (2017):

The Court declared the practice of instant triple talaq unconstitutional, emphasizing gender equality and the protection of women’s rights under the Constitution.

Significance:

  • The doctrine of the living constitution allows the judiciary to interpret constitutional provisions in a manner that aligns with the changing values of society, ensuring that the Constitution remains relevant and effective.
  • It empowers the judiciary to address contemporary issues and uphold fundamental rights, contributing to social justice and equity.

 Conclusion:

The doctrine of the living constitution is fundamental to the Indian legal system, enabling the Constitution to respond to societal changes. Through various landmark judgments, the Supreme Court has reinforced this doctrine, ensuring that the Constitution remains a living, breathing document that evolves with the times.

जीवंत संविधान का सिद्धांत:

चर्चा में क्यों?  सीजेआई ने हाल ही में कहा है कि संविधान को जीवंत दस्तावेज के रूप में समझना संवैधानिक न्यायालयों को नई, अनूठी समस्याओं को समझने में सहायता करता है।

यह न्यायालय को मौजूदा सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए न्यायशास्त्रीय आधार खोजने में सहायता करता है।

जीवित संविधान के सिद्धांत के बारे में:

यह संविधान की व्याख्या को एक गतिशील और विकसित दस्तावेज के रूप में संदर्भित करता है जो बदलते सामाजिक मानदंडों, मूल्यों और स्थितियों के अनुकूल होता है।

भारत में, यह सिद्धांत संवैधानिक व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इसे सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों द्वारा पुष्ट किया गया है।

सिद्धांत से संबंधित अनुच्छेद:

अनुच्छेद 13: मौलिक अधिकारों के साथ असंगत कानूनों को प्रतिबंधित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि संविधान प्रासंगिक बना रहे।

अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसकी न्यायपालिका द्वारा संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किए गए विभिन्न अधिकारों को शामिल करने के लिए व्यापक रूप से व्याख्या की गई है।

अनुच्छेद 32: मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए व्यक्तियों को सर्वोच्च न्यायालय में जाने की अनुमति देता है, जिससे इन अधिकारों की जीवंत व्याख्या संभव हो पाती है।

मुख्य मामले

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):

  • इस ऐतिहासिक मामले ने “मूल संरचना सिद्धांत” की स्थापना की, जिसमें कहा गया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह इसके मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। यह निर्णय संविधान की गतिशील प्रकृति को रेखांकित करता है, जो न्यायिक व्याख्या के माध्यम से विकसित होती है।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978):

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की व्याख्या का विस्तार करते हुए कहा कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है। यह मामला इस बात का उदाहरण है कि संविधान समकालीन मूल्यों और मानवाधिकारों के साथ कैसे तालमेल बिठाता है।

विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997):

  • न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए, मौलिक अधिकारों के प्रकाश में मौजूदा कानूनों की व्याख्या की। इस मामले ने जीवंत संवैधानिक दृष्टिकोण के माध्यम से समकालीन सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने में न्यायालय की भूमिका को प्रदर्शित किया।

नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018):

  • सुप्रीम कोर्ट ने LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों को मान्यता देते हुए सहमति से समलैंगिक कृत्यों को अपराध से मुक्त कर दिया। यह निर्णय व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक मानदंडों से संबंधित संवैधानिक व्याख्या की विकसित प्रकृति को दर्शाता है।

शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017):

  • न्यायालय ने संविधान के तहत लैंगिक समानता और महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा पर जोर देते हुए तत्काल तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया।

महत्व:

  • जीवित संविधान का सिद्धांत न्यायपालिका को संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या इस तरह से करने की अनुमति देता है जो समाज के बदलते मूल्यों के साथ संरेखित हो, यह सुनिश्चित करता है कि संविधान प्रासंगिक और प्रभावी बना रहे।

यह न्यायपालिका को समकालीन मुद्दों को संबोधित करने और मौलिक अधिकारों को बनाए रखने, सामाजिक न्याय और समानता में योगदान करने का अधिकार देता है।

निष्कर्ष:

जीवित संविधान का सिद्धांत भारतीय कानूनी प्रणाली के लिए मौलिक है, जो संविधान को सामाजिक परिवर्तनों का जवाब देने में सक्षम बनाता है। विभिन्न ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को मजबूत किया है, यह सुनिश्चित करते हुए कि संविधान एक जीवित, सांस लेने वाला दस्तावेज़ बना रहे जो समय के साथ विकसित हो।


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