February 20, 2025
rarest of rare’ doctrine in India/दुर्लभतम में दुर्लभ’ सिद्धांत
Why in news ? Recent cases like the Kolkata R.G. Kar Medical College incident and the Sharon murder case have led to contrasting judicial verdicts on the death penalty, rekindling discussions on the application of the ‘rarest of rare’ doctrine in India.
About the Rarest of Rare Doctrine:
What is the ‘Rarest of Rare’ Doctrine?
- This doctrine governs the imposition of the death penalty in India.
- It emphasizes that capital punishment should only be awarded in exceptional cases where the crime is so heinous that it shocks the collective conscience of society.
- The doctrine seeks to ensure that the death penalty is used sparingly, maintaining alignment with constitutional safeguards.
Origin of the Doctrine:
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Jagmohan Singh vs. State of Uttar Pradesh (1972):
- The Supreme Court upheld the constitutionality of the death penalty, stating it does not violate Articles 14 (Equality), 19 (Freedom), and 21 (Right to Life).
- However, the judgment did not provide clear guidelines on when the death penalty should be applied, leaving the decision to judicial discretion.
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Bachan Singh vs. State of Punjab (1980):
- This case formally established the ‘rarest of rare’ doctrine.
- It held that the death penalty should only be awarded in the most exceptional circumstances.
- The judgment, however, did not precisely define what constitutes the ‘rarest of rare,’ leaving room for interpretation.
Supreme Court’s Framework on ‘Rarest of Rare’ Cases:
दुर्लभतम में दुर्लभ’ सिद्धांत:
समाचार में क्यों? कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज मामले और शेरॉन हत्या मामले जैसे हालिया मामलों में मृत्युदंड पर विरोधाभासी न्यायिक फैसलों ने भारत में ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ सिद्धांत के अनुप्रयोग पर बहस को पुनर्जीवित कर दिया है।
दुर्लभतम में दुर्लभ सिद्धांत के बारे में:
दुर्लभतम में दुर्लभ सिद्धांत क्या है?
- यह सिद्धांत भारत में मृत्युदंड के उपयोग को नियंत्रित करता है।
- इसके अनुसार, मृत्युदंड केवल उन्हीं मामलों में दिया जाना चाहिए, जहां अपराध इतना जघन्य हो कि यह समाज की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर दे।
- यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि मृत्युदंड का उपयोग केवल अपवाद के रूप में किया जाए और यह संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हो।
सिद्धांत की उत्पत्ति:
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जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1972):
- सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड की संवैधानिकता को सही ठहराया और कहा कि यह अनुच्छेद 14 (समानता), 19 (स्वतंत्रता), और 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन नहीं करता।
- हालांकि, यह फैसला यह स्पष्ट नहीं कर सका कि मृत्युदंड कब दिया जाना चाहिए, जिससे यह निर्णय न्यायिक विवेक पर छोड़ दिया गया।
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बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980):
- इस मामले ने ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ सिद्धांत की स्थापना की।
- न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड केवल असाधारण परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए।
- लेकिन, इस फैसले में ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की सटीक परिभाषा नहीं दी गई, जिससे इसकी व्याख्या में अस्पष्टता बनी रही।
‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामलों पर सुप्रीम कोर्ट का ढांचा:
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मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य (1983): न्यायालय ने पाँच श्रेणियां निर्धारित कीं, जहां मृत्युदंड उचित हो सकता है:
- अपराध का तरीका: जब अपराध अत्यधिक क्रूरता या जघन्य तरीके से किया गया हो।
- अपराध का उद्देश्य: जब उद्देश्य अत्यधिक नैतिक भ्रष्टता या अमानवीयता को दर्शाता हो।
- समाज पर प्रभाव: जब अपराध से व्यापक सार्वजनिक आक्रोश उत्पन्न हो, जैसे कि घृणा अपराध।
- अपराध की गंभीरता: सामूहिक हत्याओं या एकाधिक हत्याओं के मामलों में।
- पीड़ित की कमजोर स्थिति: जब पीड़ित विशेष रूप से असहाय हो, जैसे बच्चे, महिलाएं, वृद्ध, या दिव्यांग।
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मिथु बनाम पंजाब राज्य (1983):
- न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 303 को असंवैधानिक घोषित किया, जो पहले से आजीवन कारावास भुगत रहे व्यक्तियों के लिए अनिवार्य मृत्युदंड का प्रावधान करती थी।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि मृत्युदंड का निर्धारण हमेशा न्यायिक विवेक के आधार पर ही होना चाहिए।