Why in News? The Arunachal Pradesh government is reviving a 1978 anti-conversion law to address rising concerns over cultural preservation and religious conversions.
The Arunachal Pradesh Freedom of Religion Act, passed in 1978, seeks to regulate religious conversions within the state to protect indigenous faiths and traditions. It specifically prohibits conversions achieved through force, inducement, or fraudulent means, ensuring that religious freedom does not lead to exploitation or cultural erosion. Key provisions and related aspects include:
Key Features of the Act:
Prohibition of Unlawful Conversions:
- The Act bans conversions obtained by force, inducement (offering material benefits), or deceitful practices.
Penalties:
- Violators can face up to two years of imprisonment or a fine of ₹10,000, or both.
Mandatory Reporting:
- Individuals involved in religious conversions are required to report the details to the Deputy Commissioner of the district.
Dormant for Decades:
- Although enacted in 1978, the Act remained dormant for 46 years, as the necessary implementation rules were not framed.
Why Was the Act Enacted?
The Act was introduced to address concerns about the impact of religious conversions on the region’s indigenous faiths and cultural practices, particularly among ethnic groups like the Monpas, Sherdukpens, and Tani tribes.
- It aimed to safeguard the unique traditions of Arunachal Pradesh’s tribal communities.
Rising Conversions:
- The rapid growth of Christianity in the state—from 0.79% of the population in 1971 to 4.32% in 1981—sparked debates about proselytization.
Why Was the Act Dormant?
Opposition from Christian Groups:
- Organizations like the Arunachal Christian Forum opposed the Act, labeling it discriminatory and prone to misuse.
Political Reluctance:
- With Christianity becoming the largest religion in the state (30.26% as per the 2011 Census), political leaders hesitated to alienate this demographic.
Lack of Rules:
- The absence of rules necessary for the Act’s implementation hindered its enforcement.
Current Revival Efforts
Judicial Intervention:
- A Public Interest Litigation (PIL) filed in the Gauhati High Court in 2022 brought attention to the government’s inaction. The court directed the state to finalize rules within six months.
Support for Indigenous Traditions:
- Groups like the Indigenous Faiths and Cultural Society of Arunachal Pradesh (IFCSAP) are advocating for the Act’s implementation to counter rising conversion rates and protect local traditions.
Challenges and Concerns:
Religious Freedom vs. Cultural Preservation:
- Critics argue that the Act may curtail religious freedom, fostering discrimination and division.
Support for Indigenous Faiths:
- Proponents view the Act as essential for preserving Arunachal Pradesh’s cultural identity.
Role of RSS and Affiliates:
- Organizations promoting indigenous faiths without directly engaging in conversions have added complexity to the debate.
Conclusion:
The Arunachal Pradesh Freedom of Religion Act, 1978, highlights the delicate balance between protecting cultural heritage and ensuring religious freedom. As discussions on its implementation intensify, careful consideration is needed to address diverse perspectives while upholding constitutional rights.
अरुणाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1978
समाचार में क्यों? अरुणाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1978, राज्य में धार्मिक रूपांतरणों को नियंत्रित करने और स्वदेशी विश्वासों एवं परंपराओं की रक्षा करने के उद्देश्य से पारित किया गया था। यह अधिनियम विशेष रूप से बल, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्मांतरण पर रोक लगाता है, ताकि धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न हो और सांस्कृतिक क्षरण से बचा जा सके। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान और संबंधित पहलू निम्नलिखित हैं:
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं
अवैध धर्मांतरण पर रोक:
- बल, प्रलोभन (सामग्री लाभ की पेशकश) या धोखाधड़ी के माध्यम से किए गए धर्मांतरण पर प्रतिबंध।
दंड:
- उल्लंघनकर्ताओं को दो साल तक की कैद या ₹10,000 का जुर्माना, या दोनों का सामना करना पड़ सकता है।
अनिवार्य रिपोर्टिंग:
- धर्मांतरण में शामिल व्यक्तियों को इसकी जानकारी संबंधित जिले के उपायुक्त को देनी होगी।
चार दशकों तक निष्क्रिय:
- 1978 में पारित होने के बावजूद, यह अधिनियम 46 वर्षों तक निष्क्रिय रहा क्योंकि आवश्यक नियम बनाए नहीं गए।
अधिनियम को लागू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
यह अधिनियम अरुणाचल प्रदेश की स्वदेशी जनजातियों जैसे मोनपा, शेरडुकपेन, और तानी जनजातियों के सांस्कृतिक विश्वासों और परंपराओं पर धर्मांतरण के प्रभाव को लेकर चिंताओं के समाधान हेतु लागू किया गया था।
सांस्कृतिक संरक्षण:
- अधिनियम का उद्देश्य राज्य की जनजातीय समुदायों की अनूठी परंपराओं को संरक्षित करना था।
बढ़ते धर्मांतरण:
राज्य में ईसाई धर्म की तीव्र वृद्धि—1971 में 0.79% से बढ़कर 1981 में 4.32% होने पर, धर्मांतरण और उसकी प्रभावशीलता पर बहस तेज हो गई।
अधिनियम निष्क्रिय क्यों रहा?
ईसाई संगठनों का विरोध:
- अरुणाचल क्रिश्चियन फोरम जैसे संगठनों ने इस अधिनियम का विरोध किया और इसे भेदभावपूर्ण और दुरुपयोग के लिए प्रवृत्त बताया।
राजनीतिक अनिच्छा:
- 2011 की जनगणना के अनुसार ईसाई धर्म राज्य का सबसे बड़ा धर्म (30.26%) बन गया, जिससे इस वर्ग को नाराज़ करने से बचने के लिए राजनीतिक नेतृत्व ने इसे टाल दिया।
नियमों की अनुपस्थिति:
- अधिनियम को लागू करने के लिए आवश्यक नियमों की अनुपलब्धता ने इसके क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न की।
अभी इसे पुनर्जीवित क्यों किया जा रहा है?
न्यायिक हस्तक्षेप:
- 2022 में, गुवाहाटी उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका (PIL) ने सरकार की निष्क्रियता को उजागर किया। न्यायालय ने छह महीने के भीतर नियमों को अंतिम रूप देने का निर्देश दिया।
स्वदेशी परंपराओं का समर्थन:
- इंडिजिनस फेथ्स एंड कल्चरल सोसाइटी ऑफ अरुणाचल प्रदेश (IFCSAP) जैसे समूह इस अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए बढ़ते धर्मांतरण को रोकने और स्थानीय परंपराओं को बचाने हेतु सक्रिय हैं।
चुनौतियाँ और चिंताएँ:
धार्मिक स्वतंत्रता बनाम सांस्कृतिक संरक्षण:
- आलोचकों का मानना है कि यह अधिनियम धार्मिक स्वतंत्रता को बाधित कर सकता है और भेदभाव व विभाजन को बढ़ावा दे सकता है।
स्वदेशी विश्वासों का समर्थन:
- समर्थकों का तर्क है कि यह अधिनियम अरुणाचल प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
आरएसएस और संबद्ध संगठनों की भूमिका:
- स्वदेशी विश्वासों को बढ़ावा देने वाले संगठनों की भूमिका, जो सीधे धर्मांतरण में शामिल नहीं होते, इस बहस को और जटिल बनाती है।
निष्कर्ष:
अरुणाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1978, सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता के संरक्षण के बीच नाजुक संतुलन को उजागर करता है। इसके कार्यान्वयन के दौरान विभिन्न दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए, संवैधानिक अधिकारों का सम्मान सुनिश्चित करना अत्यावश्यक होगा।